THE FOLLOWING POEM BY DEEPAK AHUJA FROM NEW DELHI WON THE FIRST PRIZE IN WINGWORD POETRY COMPETITION 2023’S REGIONAL CATEGORY.
ग़ुलामों की बस्ती में, आज़ादी का क्या मोल,
मन मे व्यथाएँ हज़ार, लबों पर बस दो बोल।
किसने सीखी यहाँ पर, राह-ए-उल्फ़त कभी,
जो रास्ते हुए मयस्सर, एहसास रहे थे तोल।
कोई हसरत बुझती नहीं, बेड़ियाँ पहनने से,
सय्याद बेरहम है, पंछी न बचता चहकने से।
ख़यालों के ग़ुलाम, चेहरे से लगते बिस्मिल,
कोई सरपरस्त नहीं, क्या फ़ायदा कहने से।
सिर झुकाए चलते, ये जिस्म, बेजान लगते,
अपनी ही क्षमताओं से, अब अंजान लगते।
जागते-जागते सो रहे, बेहोश और गुमनाम,
गुमान नहीं, नज़र-नज़र से, परेशान लगते।
फ़राहम नहीं हिम्मत अंदर, न कोई फ़रियाद,
नसीब हांक रहा बैलों की तरह, राहें न याद।
न कोई ज्वाला, न कोई लौ, न कोई शम्अ,
जी रहे कठपुतली जैसे, ज़िन्दगी न आबाद।
हुक्मरान का सितम, मन की दशा बदलता,
जो सहता ज़ुल्म, ठंडी छाया में भी जलता।
ऊपर देखता आसमान में, कोई चिराग़ नहीं,
जब देखता भीतर, अंतस् में साहस पलता।
रास न आया ग़ुलाम को, सूरज का उजाला,
अंधकार भरी रातों में, जन्मों से विष पाला।
ये ज़हर पी कर भी, हाल-ए-दिल न बताया,
एक चिंगारी ज़हन में, ये दर्द ऐसे संभाला।
बादशाह का गुरूर, ग़ुलाम करते हैं क़ुबूल,
ये बस्ती मजबूरी की, इश्क़ करना है भूल।
क़तरा-क़तरा बह जाता, लाख ग़म छिपाए,
साहस को परखना, यहाँ पे मिट्टी और धूल।
वो आवाज़ न उठाता, सितमगर के ख़िलाफ,
जो टुकड़ा-टुकड़ा हो रही, वो रूह है साफ़।
ये गीत उभर रहे, इस तन्हाई के, साज़ पर,
क्या इस सरगम को मिलेगा, कोई इंसाफ।
भेड़-बकरियों जैसे चल, बने जी का जंजाल,
एक दूसरे के पीछे, कैसे है अजब भेड़चाल।
कोई आज़ाद आँख न दिखे, रौशनी में भी,
कुछ तो ऐतबार कर, ख़ुद पर, बन विशाल।
उड़ती पतंगे, बहती पुरवाई में, पता पूछती,
अपनी बनाई ज़ंजीरों से, ज़िंदगी है जूझती।
अजी ग़ुलामों की बस्ती में, सिर कौन उठाए,
जो उठाए एक नज़र, वो नज़र गिरती टूटती।
शिकवा, शिकायत करके भी, क्या फ़ायदा,
इस कड़वे फल का, शहद न बदले ज़ायका।
एक वजूद, एक अस्तित्व, एक ही मैं मन में,
कैसा ख़्वाब, कैसी ख़्वाहिश, कैसा क़ायदा।
साथ न किसी ज़माने का, कैसा ये वीराना,
जो साथ चल रहा, वो ख़ुद से भी अंजाना।
ग़ुलामी पसंद शख़्स की, न कोई पहचान,
बस वो तलाशता, मर-मर जीने का बहाना।
गिर रहे सुर्ख़ ओले, जकड़े हाथों के तल पर,
पिघल-पिघल सोना बने कुंदन, ऐसा असर।
अंदर जीवन, मन की हसरतें, न बनी ग़ुलाम,
कैसा खेल जगत का, इंसान नाचे बन बंदर।
इस संसार में कौन है, जो पैदा ग़ुलाम हुआ,
हर किसी की माँ ने, वात्सल्य रस से छुआ।
ममता की नदी तो हमेशा, आज़ाद ही रहती,
प्यार की, सबसे बड़ी मिसाल, माँ की दुआ।
ग़ुलाम तो जिस्म है, मन को कौन बांध पाए,
हर बशर के अंतर्मन में, बसते नूरानी साये।
अब कोई बस्ती मिले उल्फ़त वाली, मन को,
जहाँ उन्मुक्त आत्मबोध की, कथाएँ सुनाएँ।
ऐ क़ल्ब-ए-रूह इस तरह, तू बेज़ार नहीं हो,
जीवन के मायने समझ, ख़ुद को पहचानो।
जो पानी पीया, मुहब्बत का, प्यास न बची,
आम इंसान बनकर, ये स्वाभिमान संभालो।
एक ग़ुलामी स्वीकार है, उस परमात्मा की,
वो रब तो शाश्वत है, प्राण ऊर्जा आत्मा की।
घट-घट में वो बसता, नयन पुतली से झांके,
वही तो साहिब, साहिबा, हर जीवात्मा की।
जब नैन नम हो जाते, वो मालिक पुकारता,
उस दर पर जाके, ग़ुलाम नसीब संवारता।
तेरी शक्ल देखकर, बंदा नायाब बन गया,
झुक कर, सजदा करके, अहम् से हारता।
मौकापरस्त ज़माना, ये मन प्रभावित करे,
पैरों की बेड़ियाँ टूटी, सब मन पर वार करे।
एक ढाल बनकर, ज़िंदगी आज़ाद रखना,
ग़ुलामों की बस्ती का, कोई तो उद्धार करे।
बहार का मौसम भी, पतझड़ जैसा लगता,
ग़ुलामी का जामा पहने, कोई नहीं जगता।
सांसारिक सामान, जैसे माया की दुनिया,
डूबकर अपने भीतर, आध्यात्म में रमता।
कोई नाम नहीं, इस भीड़ में केवल चेहरे,
इस शरीर पर लगे, तपती निगाह के पहरे।
सभी चाहते जीना, बिना किसी बंदिश के,
लेकिन ये अरमान तो, सहमे ठहरे-ठहरे।
साँसों की ये कश्ती, अविरल डोलती जाती,
अंधकार में डूबा, बिना दीपक और बाती।
वफ़ा तो दिल से होती, डर से होए दिखावा,
कोई आहट आए, दिल में उम्मीद जगाती।
सौंप कर, अपने को किस्मत पर, नाच रहा,
इस दिल की रम्ज़ को, कौन है जाँच रहा।
बिना बोले नहीं जान पाता, संसार व्यथाएँ,
पिंजरे में बंद हो, ज़हन के बंधन काट रहा।
काट कर तन देखा, सिर्फ़ मुहब्बत है पाई,
फिर क्यों यहाँ पर, पल-पल मिले रुसवाई।
अजब रीत जगत की, कौन बच पाया यहाँ,
मन की गहराई जान, आज़ादी हुई पराई।
नि:स्तब्ध होके, ग़ुलाम बस्ती को सलाम है,
जग में इंसान कम, यहाँ पे सिर्फ़ इंसान हैं।
क़ैद में मुस्कुराते, ज़ुल्म-ओ-सितम से परे,
अजब खेल सरकार के, हम सब नादान हैं।
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